‘कितनी कठपुतलियां’ मनोरजंन के लिए नहीं : भंवर मेघवंशी

  • पुस्तक पर खास विमर्श – कितनी कठपुतलियां
  • भंवर मेघवंशी की अनुभूतियों का दस्तावेज

फोकस भारत। भरत मेघवंशी, जिन्हें लेखक कहने के बजाय एक्टिविस्ट जर्नलिस्ट कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। दलित विमर्श और संविधान रक्षा की वे सिर्फ बातें नहीं करते, बल्कि ग्राउंड पर उतरकर उन्होंने सतत और अनवरत ऐसा आंदोलन चलाया हुआ है जो शुरू तो हो गया है, लेकिन मौजूदा दौर की परिस्थितियों को देखते हुए उसका अंत या पूर्णता निकट नजर नहीं आती। संविधान बचाना भी है और समाज की जड़ों में उसका पोषण भी पहुंचाना है।

  • पुस्तक- कितनी कठपुतलियां
  • लेखक- भंवर मेघवंशी
  • विमोचन- 15 अगस्त 2020 

भंवर मेघवंशी का उपन्यास ‘कितनी कठपुतलियां’ 15 अगस्त को रिलीज़ किया जाएगा। वैचारिक समानता के हामी मेघवंशी ने बिल्कुल सही तारीख इस महत्वकांक्षी उपन्यास के विमोचन के लिए चुनी है। ‘कितनी कठपुतलियां’ में वे अपने रंगकर्मी मित्र शंकर सिंह के साथ बीते समय और अनुभवों का दस्तावेज पेश करते हैं। पुस्तक के कथावस्तु में ही मेघवंशी ने लिखा है- ‘सूचना के अधिकार आंदोलन के मज़बूत स्तम्भ और मज़दूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक सदस्य, प्रख्यात रंगकर्मी शंकर जी मेरे लिए मास्टर ऑफ सोशल वर्क की यूनिवर्सिटी जैसे थे, जब उनके साथ रहे, उन्हें अच्छे से जाना, तब जाकर यह समझ सका कि आप किसी भी पृष्ठभूमि से आये हों, समाज के लिए कुछ करने का भाव यदि मन में है तो बहुत कुछ किया जा सकता है।

शंकर जी के साथ समाज की धारा को समझने और दिशा देने के उन दिनों को याद करते हुए मेघवंशी ने लिखा है- मार्च 2002 से जुलाई 2015 तक मैने ‘कितनी कठपुतलियाँ’ के नायक शंकर सिंह के साथ काम किया, रात दिन साथ रहने का मौक़ा मिला। इस दौरान लिए गये नोट्स और अवचेतन में सुरक्षित रह गईं कुछ स्मृतियाँ ही इस कथावस्तु के लेखन में सहायक हुईं।‘

कथावस्तु में ही भंवर मेघवंशी यह स्पष्ट कर देते हैं कि उनका उपन्यास मनोरंजन की सामग्री नहीं है, यह ग्रंथियों में विचार की तरह आहिस्ता से घुल जाने और जड़ जमा सकने की कोशिश भर है, वे कहते हैं- यह भी संभव है कि भाषा के विद्वान और साहित्य के स्थापित मठाधीश मेरे इस लेखन को यह कहकर नकार दें कि “इसमें काल्पनिकता का नितांत अभाव है, यह तो व्यष्टि और समष्टि का समकालीन दस्तावेजीकरण मात्र है, इसमें साहित्य कहाँ हैं?”

यकीन मानिये मेघवंशी ने इस उपन्यास को जिंदा उपन्यास कहा है तो यह आपके हाथों में एक जिम्मेदारी की तरह आएगा, एक सोच की तरह रेंगेगा और एक क्रांति की तरह जबान से झरने लगेगा। ये स्वीकारोक्ति देते हुए वे कहते हैं- ‘मैं कल्पनाशीलता के अभाव की इस आलोचना को बेझिझक पूरी गरिमा से स्वीकार करूँगा और अपने बचाव में सिर्फ़ यही कहूँगा कि यह हमारे वर्तमान को रेखांकित करता हुआ एक ज़िंदा उपन्यास है जो साल दर साल आगे बढ़ता है। कल्पना की ज़रूरत मुझे इसलिए नहीं पड़ी क्योंकि यहाँ साक्षात जीवन है, संघर्ष है, तमाम ऐसी सच्ची घटनाएँ हैं जिन्हें पढ़ते हुए पाठकों का अन्तःस्थल बरबस द्रवित हो उठेगा। इस लम्बे सफर में कठिनाइयों, दुश्वारियों, अनंत संघर्ष और सफलता के ऐसे मर्मस्पर्शी पल एवं बहुरंगी स्मृतियाँ मौजूद हैं कि यहाँ किसी और लेखकीय कलाकारी की आवश्यकता ही नहीं रही।

लेखक को जानें

भरत मेघवंशी बहुजन समाज से जुड़े मसलों, दलित विमर्श और सच्चे अर्थों में संविधान को व्यवहारिक तौर पर समाज में लागू करने के हिमायती हैं। भीलवाड़ा के सिरडीयास में बुनकर परिवार में जन्मे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े लेकिन मोहभंग होने के बाद कौमी एकता, भाईचारे, शांति और सदभाव के लिए जुट गए। गुजरात दंगों के बाद पाली, भीलवाड़ा, राजसमंद, अजमेर में लगातार 15 दिन साइकिल पर अमन यात्रा निकाली। त्रिशूल दीक्षा समारोहों का विरोध ‘त्रिशूल के बदले फूल’ जैसे अभियानों से किया। भड़काऊ भाषणों से निपटने के लिए ‘भारत पुत्रों जोगो’ ऑडियो टेप भी जारी किया। दलित, आदिवासी और  घुमंतू जातियों के अधिकार रक्षण के लिए ‘डगर’ की स्थापना की।

वे कहते हैं – युवा आसानी से सिस्टम को, हालात को बदल सकते हैं, एक मोड़ पर आकर समाज यथास्थिति बरकरार रखना चाहता है, लेकिन युवा को गलती करने का अधिकार है। युवाओं की जिम्मेदारी है, वे कूपमंडूक न बनें, ट्रोलर भी न बनें, दुनिया को बेहतर बनाएं, वे बना सकते हैं।

रिपोर्ट- आशीष मिश्रा