- सचिन को पाले में फेल हुई भाजपा ?
- किसकी खामोशी है सबसे बड़ी सियासत ?
- वसुंधरा राजे का इस सियासी संकट से क्या संबंध ?
फोकस भारत। राजस्थान की राजनीति में इतनी उठापटक मची। चार दिन से हर पल पत्रकार नई सुर्खी की तलाश में हैं, और सुर्खियां मिल भी रही हैं। हर एक घटनाक्रम, हर ट्वीट पर नजर गड़ाकर रखी जा रही है। लेकिन राजस्थान में रजवाड़ी शान से मैच करती वह महिला जिसे विपक्ष में बैठकर अशोक गहलोत ने हमेशा महारानी के नाम से पुकार है, जो दो बार राजस्थान की सत्ता का केंद्र रही हैं, वे वसुंधरा राजे इस सियासी घटनाक्रम पर एकदम खामोश हैं। तूफान आने से पहले सन्नाटा पसर जाता है, लेकिन असल में वसुंधरा की खामोशी ही उनका तूफान है। वसुंधरा ही राजस्थान की एकमात्र बीजेपी नेता हैं, जिनकी पैठ राजस्थान के कोने-कोने में हैं। जमीन तक है। वे ऐसी नेता हैं, जिनकी खामोशी ही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक चाल है।
सचिन कांग्रेस से छिटके तो भाजपा आलाकमान सतर्क हो गया। जैसे हमेशा होता है। पूरी शीर्ष टीम एक्टिव हो जाती है। गिरता हुआ फल उन्हें अपनी ही झोली में चाहिए। ओम माथुर ने लिख दिया – जनाधार वाले नेता का स्वागत है, सतीश पूनिया, गजेंद्र सिंह और पीपी चौधरी तक ने सचिन नाम का फल लपकने के लिए वक्तव्य दे डाले, झोली पसार दी। लेकिन वसुंधरा खामोश रहीं। हनुमान बेनीवाल 11 जुलाई तक वसुंधरा और अशोक गहलोत के बीच डील होने की डींगें हांकते रहे, फिर ट्वीट किया कि 3-4 दिन बाहर जा रहा हूं। अगले दिन से उनके ट्वीट की भाषा ही बदल गई। मोदी का गुणगान करते वीडियो शेयर करने लगे। ऐसा क्या हुआ ‘बाहर’, कि बेनीवाल अंदर तक हिल गए। उसके बाद से राजे के खिलाफ उन्होंने एक शब्द नहीं लिखा। उस मामले में भी वसुंधरा ने मौन ही साधे रखा था।
सचिन पायलट की बगावत और गहलोत सरकार की हालत पर जो राजनीति का र भी नहीं समझते हैं वे भी ट्वीट कर रहे हैं, पोस्ट डाल रहे हैं, लेकिन वसुंधरा का इस मामले में न कोई बयान, न ट्वीट। ऐसा नहीं कि वे ट्वीटर पर एक्टिव नहीं, एक्टिव हैं, गाय पर लिखा, समाज सुधार पर लिखा, आरएसएस पर लिखा, कैर पूजा तक पर लिख गईं, लेकिन राज्य की राजनीति को शब्दों से अछूत ही बनाए रखा। आखिरी बार वे नितिन गडकरी की वर्चुअल रैली में 27 जून को नजर आईं थी। लेकिन उसके बाद किसी कार्यक्रम में नहीं दिखीं।
हो सकता है कि राजे नहीं चाहती हों कि अशोक गहलोत की सरकार गिरे। शायद यह भी नहीं चाहतीं कि सचिन पायलट भाजपा में आएं। राजस्थान में वसुंधरा का विकल्प खोजना मुश्किल है, वसुंधरा के रहते सचिन पायलट, जो सीएम बनने की चाह लिए ही अपनी पार्टी का दामन छोडकर आए हैं, वे किस शर्त के साथ भाजपा के साथ जुड़ेंगे ?
हां, ये बात मानी जा सकती है कि आलाकमान के साथ वसुंधरा की तल्खी है। यह तल्खी उनके पिछले कार्यकाल के आखिर से शुरू हुई। वसुंधरा 2014 में दुष्यंत को केंद्र में मंत्री बनते देखना चाहती थी, अमित शाह ने रोड़ा अटका दिया। दिल्ली में शाह की चली तो राजस्थान में वसुंधरा ने बदला लिया। शाह गजेंद्र सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहते थे, वसुंधरा अड़ गईं, आखिर मदनलाल सैनी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया।
सतीश पूनिया को अध्यक्ष बनाकर एक बार फिर अमित शाह ने वसुंधरा को एक घर पीछे धकेल लिया। लेकिन राजस्थान में जमीन पर मजबूत पकड़ रखने वाली राजे ने यहां मोहरे इस तरह सेट किये हैं, कि वे चुप्पी की ढाई घर चाल भी चल सकती हैं, और रास्ता काटने वाला कोई नज़र भी न आए।
रिपोर्ट- आशीष मिश्रा