फोकस भारत। इन दिनों राजस्थान के टीवी पत्रकार श्रीपाल शक्तावत का सोशल मीडिया पर लिखा गया लेख पत्रकारों में चर्चाओं में है। जिसमें सोशल इंजिनियरिंग और मीडिया में जातिगत स्थिति सुधारने को लेकर श्रीपाल शक्तावत ने अपनी कोशिशों का हवाला देते हुए बताया है कि कैसे उन्होंने पत्रकारिता में आने के बाद वंचित वर्गों को मौका दिया, यहां ये भी गौर करने वाली बात है कि श्रीपाल शक्तावत पर मीडिया में रहते हुए अपनी जाति के लोगों को ही बहुतायत से भर लेने और महत्वपूर्ण बीट पर लगाने के आरोप लगते रहे हैं और एक बार फिर शक्तावत इसी को लेकर चर्चाओं में हैं। इसी के साथ इस बार एक ओर बात चर्चाओं में है कि श्रीपाल शक्तावत अब आने वाले चुनावों में भी अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं जिसके तहत वे केकड़ी से अपनी चुनावी चौसर बिछाना चाहते हैं । अब सच्चाई जो भी हो लेकिन शक्तावत ने अपने लेख में डेमेज कंट्रोल करने की पूरी कोशिश की है। क्योंकि वे जानते हैं कि जो छवि जातिवाद को लेकर उनकी बनती जा रही है वो ना तो मीडिया में उनके रहने के लिए सही है और ना ही सियासत के अखाड़े में।
वैसे श्रीपाल शक्तावत के आलोचकों का कहना है कि वे जहां भी रहे वहां पर उनकी जाति के लोगों की बहुतायत उनके घोर जातिवादी रवैए को ही दिखाती है। लेकिन अपने लेख में जाति के आधार पर पत्रकारों के चयन को लेकर कई लोग जहां उनकी तारीफ कर रहे हैं तो कुछ लोग सीधे सवाल भी उठा रहे हैं कि पत्रकारिता में जातिगत आधार पर चयन करना ही उनकी मानसिकता दिखाता है । वैसे मीडिया में जातिवाद के आधार पर सलेक्शन कोई नई बात नहीं है । ये जरूर है कि श्रीपाल शक्तावत ने उसे अलग तरीके से स्वीकार किया है और बाकि इसे स्वीकार करने से कतराते रहे हैं। राजनीति के जानकार तो यहां तक कह रहे हैं कि श्रीपाल शक्तावत का लेख अपने किए के डेमेज कंट्रोल की कोशिश है। हो सकता है शक्तावत पत्रकारों को एसटी,एसटी और ओबीसी में बांट कर वंचितों को ये मैसेज पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्होंने ही इन वर्गों को मौके दिए हैं, लेकिन इसकी संख्या फिर भी नगण्य ही रही है। हालांकि जब वे इन पत्रकारों का जिक्र करते हैं तब ये नहीं बताते हैं कि इनके अनुपात में अपने स्वजातीय बंधुओं को कितनों को नौकरी दी और जाति के आधार पर कितने लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया गया।
श्रीपाल शक्तावत के लेख का पत्रकार चन्द्रशेखर राजपुरोहित ने फेसबुक पर जवाब दिया जिसमें उन्होंने सबसे अहम सवाल उठाया है कि मीडिया में कब से सोशल इंजीनियरिंग होने लगी ये शब्द तो राजनीति में प्रचलित है।
लेखिका- कविता नरुका