- राज्यों में केंद्र का ‘रिमोट’ राज्यपाल
- राजनीति में राज्यपाल विवाद- एक नजर
- संघ राज्य संबंध कब कब हुए प्रभावित
फोकस भारत। पाठ्यपुस्तकों में जब लोकतंत्र के सिद्धान्त और भारतीय राजनीति विषय पढ़ाजा जाता है तो एक लाइन आपको नजर आ सकती है- राज्यपाल राज्यों में केंद्र सरकार का एजेंट होता है। आजादी के बाद की राजनीति पर नजर दौड़ाई जाए तो संघ राज्य संबंधों में राज्यपाल की भूमिका केंद्र सरकार के हाथों की कठपुतली की तरह नजर आती है। हालांकि कई बार राज्यपालों ने संविधान के दायरे में रहकर उत्कृष्ठ राजनीति का भी परिचय दिया। लेकिन प्रदेशों के मुश्किल राजनीतिक हालातों को राज्यपालों ने दरअसल और ज्यादा उलझाला। समाजवादी नेता मधु लिमये 70-80 के दशक में कहा करते थे कि राज्यपाल का पद समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
राजस्थान में हाल ही में चले सियासी उफान के दौरान जब सचिन पायलट बागी विधायकों के साथ प्रदेश से बाहर चले गए थे तब बहुमत का आंकड़ा किसी तरह जुटाकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जल्द से जल्द बहुमत साबित कर हालात से छुटकारा पाना चाहते थे, लेकिन राज्यपाल ने विधानसभा सत्र बुलाने के लिए गहलोत सरकार को पापड़ बिलवा दिए। तीन बार कैबिनेट की तरफ से सिफारिश भेजनी पड़ी और 31 जुलाई को सदन चाहने वाले गहलोत को 14 अगस्त तक इंतजार करना पड़ा, पूरी सरकार को बाड़े में रहना पड़ा। हालांकि अंत भला तो सब भला, लेकिन राज्यपाल की भूमिका पर एक और सवाल उठ ही गया। चलिए राजनीतिक इतिहास में ऐसे कौन से उदाहरण हैं जो राज्यपाल बनाम सरकार के मौजूदा दौर में गिनाई जा सकते हैं, एक पड़ताल-
2019 में महाराष्ट्र में भगत सिंह कोश्यारी का मामला
महाराष्ट्र में 288 सीटों पर चुनाव हुए थे जिनमें से भाजपा को 105, शिवसेना को 56, एनसीपी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं। किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इसके बाद कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी ने सरकार बनाने के लिए साथ आने का फैसला किया। लेकिन एनसीपी नेता अजित पवार बागी होकर भाजपा से मिल गए और राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने नियम कायदों को किनारे रखकर देवेंद्र फडणवीस को सुबह तड़के शपथ दिला दी। बाद में उद्धव ठाकरे और शरद पंवार ने मिलकर सरकार बनाई।
1982 में हरियाणा में जीडी तापसे का मामला
मामला 1982 का है। जीडी तापसे हरियाणा के राज्यपाल थे। चौधरी देवीलाल के पास लोकदल के विधायकों का बहुमत था लेकिन तापसे ने अल्पमत वाली कांग्रेस के नेता भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। बाद में भजनलाल ने लोकदल के कुछ विधायक तोड़े और बहुमत साबित कर दिया।
1983 में आन्ध्र में ठाकुर रामलाल का मामला
1983 में आन्ध्र के राज्यपाल थे ठाकुर रामलाल। तेलगू देशम पार्टी की सरकार थी। मुख्यमंत्री थे एनटी रामाराव। मुख्यमंत्री रामाराव दिल का ऑपरेशन कराने अमेरिका गए हुए थे। उनके पीछे से उन्हीं के बागी मंत्री एन भास्कर राव ने पार्टी पर कब्जा कर लिया। राज्यपाल ने रामाराव सरकार को बर्खास्त कर भास्कर को शपथ दिला दी। रामराव लौटे तो राज्यपाल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया, केंद्र को ठाकुर रामलाल को हटाना पड़ गया। नए राज्यपाल बने शंकर दयाल शर्मा। इसके बाद रामाराव ने खोई हुई सत्ता भी प्राप्त कर ली।
1983 में जम्मू कश्मीर में जममोहन का मामला
1983 में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे फारुख अब्दुल्ला। राज्यपाल ने अब्दुल्ला सरकार को बर्खास्त कर फारुख अब्दुल्ला के ही बहनोई गुल मुहम्मद शाह को सीएम पद की शपथ दिला दी।
1989 में कर्नाटक में वेंकट सुबैया का मामला
1989 का साल था। सरकार थी एसआर बोम्मई की। राज्यपाल पी. वेंकट सुबैया ने कहा कि सरकार विधानसभा में बहुमत खो चुकी है और सरकार को बर्खास्त कर दिया। बोम्मई हाईकोर्ट गए लेकिन राज्यपाल के फैसले पर वहां भी मुहर लगा दी गई। बोम्मई हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बोम्मई सरकार की बर्खास्तगी असंवैधानिक थी और उन्हें बहुमत साबित करने का मौका मिलना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला नजीर बन गया कि सरकार के बहुमत या अल्पमत का फ़ैसला संबंधित सदन में ही हो सकता है।
1998 में उत्तरप्रदेश में रोमेश भंडारी का मामला
1998 में उत्तरप्रदेश में भाजपा गठबंधन की कल्याण सिंह सरकार थी। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को सीएम पद की शपथ दिला दी। मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट में चला गया। हाईकोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया और कल्याण सिंह दोबारा मुख्यमंत्री बने। जगदंबिका पाल एक ही दिन सीएम रह सके।
1998 में बिहार में वीसी पांडे का मामला
1998 में बिहार में लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी की सरकार थी। राज्यपाल थे वीसी पांडे। पांडे ने राबड़ी सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। उस समय केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। बिहार में राष्ट्रपति शासन का फैसला लोकसभा में तो पास हो गया लेकिन राज्यसभा में अटक गया। मजबूरी में राबड़ी सरकार को बहाल करना पड़ा।
2005 में झारखंड में सैयद सिब्ते रजी का मामला
2005 में झारखंड में राज्यपाल सैयद सिब्ते रज़ी ने अल्पमत के नेता शिबू सोरेन को सीएम पद की शपथ दिला तो दी, लेकिन सोरेन बहुमत साबित न कर सके। लिहाजा नौ दिन में उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया। इसके बाद अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी।
2005 में बिहार में बूटा सिंह का मामला
बिहार में 2005 में किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला। फरवरी का महीना था, मई में बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दी। उस समय केंद्र में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा बंग करने के फैसले को असंवैधानिक करार दिया।
2009 में कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज का मामला
2009 में कर्नाटक में भाजपानीत बीएस येदियुरप्पा की सरकार थी। राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने भाजपा सरकार को बर्खास्त कर दिया। केंद्र में उस समय यूपीए की सरकार थी। राज्यपाल ने आरोप लगाया कि बहुमत गलत तरीके से हासिल किया गया है, दोबारा बहुमत साबित किया जाए।
2014 में अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल का मामला
2014 के दिसंबर महीने में अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने राज्यपाल के रवैये पर सख्त टिप्पणियां करते हुए राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश को असंवैधानिक करार दिया और राज्य की कांग्रेस सरकार को बहाल करने का आदेश दिया।
2016 में उत्तराखंड में राज्यपाल का मामला
मार्च 2016 में उत्तराखंड में हरीश रावत की कांग्रेस सरकार के 9 विधायक बागी होकर बीजेपी में मिल गए, सरकार अल्पमत में आ गई। सीएम हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए 5 दिन का समय दिया गया। लेकिन केंद्र सरकार ने राज्यपाल की सिफारिश पर बहुमत परीक्षण से पहले ही राज्य में राष्ट्रपति शासन की लागू करने की सिफारिश कर दी। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इसे स्वीकार भी कर लिया। हरीश रावत इसके खिलाफ नैनीताल हाईकोर्ट में गए, फैसला उनके पक्ष में आया लेकिन केंद्र सरकार मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी हरीश रावत सरकार को बहाल कर दिया।
2017 में गोवा में मृदुला सिन्हा का मामला
गोवा में 40 सीट वाली विधानसभा है। कांग्रेस 17 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। जबकि भाजपा को महज 13 सीटें मिली थी। परंपरागत तरीके से राज्यपाल को सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने का न्योता देना चाहिए था लेकिन मृदुला सिन्हा ने भाजपा के मनोहर पर्रिकर को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। भाजपा ने छोटे दलों के विधायकों को दल-बदल कराकर उन्हें मंत्री पद देकर बहुमत साबित कर लिया।
2017 में मणिपुर में नजमा हेपतुल्ला का मामला
साल 2017 में में 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा में कांग्रेस के 28 विधायक जीते जबकि भाजपा के 21 विधायक जीतकर सदन पहुंचे। लेकिन राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने चुनाव बाद के बने भाजपा एनपीपी के गठबंधन को आधार बनाकर भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दे दिया। इसके बाद वहां भाजपा की सरकार बनी।
2018 में जम्मू कश्मीर में सत्यपाल मलिक का मामला
2018 में जम्मू कश्मीर में महबूमा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी ने नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने का दावा किया था। यह दावा फैक्स के द्वारा राज्यपाल सत्यपाल मलिक तक पहुंचाया गया। राज्यपाल मलिक ने इसके बाद भी विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर दी। बाद में दलील दी कि फैक्स मशीन खराब थी।
बहरहाल, राज्यपाल का पद संवैधानिक पद है और कई बार यह मांग उठी है कि इस पद को खत्म कर दिया जाना चाहिए। क्योंकि राज्यपाल के जरिए केंद्र सरकार राज्यों में सत्ता बनाने और बिगाड़ने का काम करती है। यह दावा इतिहास की नजर से देखा जाए तो सही भी मालूम पड़ता है। केंद्र में चाहे किसी भी दल की सत्ता रही, राज्यपाल की भूमिका संदिग्ध ही रही है। समाजवादी नेता मधु लिमये राज्यपाल के पद को ही सफेद हाथी की संज्ञा दी थी। वजह यही थी कि संवैधानिक होते हुए भी यह पद सिर्फ दिखावे का है और बहुत खर्चीला है।
रिपोर्ट-आशीष मिश्रा