- हनुमान बेनीवाल के आरोपों में कितना दम ?
- क्या राजे से पुरानी रड़क निकाल रहे बेनीवाल
फोकस भारत। राजस्थान में सियासी भूचाल के बीच भाजपा की सहयोगी पार्टी आरएलएसपी के संयोजक और सांसद हनुमान बेनीवाल ने एक के बाद एक ट्वीट किये और एक साथ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर निशाने साध डाले। लेकिन पत्रकार जगत ने उन्हें ‘सीरियसली’ नहीं लिया। सभी जानते हैं वसुंधरा राजे से हनुमान बेनीवाली का छत्तीस का आंकड़ा है और वे पिछले साल ही झुंझुनूं में सार्वजनिक तौर पर यह ऐलान कर चुके थे कि वे वसुंधरा राजे को साइडलाइन करके ही रहेंगे। लेकिन फिर भी हनुमान बेनीवाल ने जो कुछ कहा है, उसके बाद अगर आप जरा राजनीतिक ‘फ्लैश बैक’ में जाएंगे तो कहानी, पटकथा, निर्माता, निर्देशक सभी के सियासी मायने समझ पाएंगे।
आखिर क्या कहना चाहते हैं बेनीवाल ?
उन्होंने अपने एक ट्वीट में कहा कि 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अशोक गहलोत के नजदीकी सीपी कोठारी की नियुक्ति रीको निदेशक के तौर पर करने की सिफारिश की थी जिस पर लोकायुक्त से संज्ञान लेते हुए मुकदमा दर्ज करने और मामले की स्वतंत्र एजेंसी से जांच कराने की बात कही थी। लेकिन उस मामले पर पर कभी FIR दर्ज नहीं की गई।
बेनीवाल के तीरों के कितने निशाने ?
हनुमान बेनीवाल यह खुद भी जानते हैं कि इस तरह की सिफारिशें मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के बीच होती रहती हैं। खासतौर से राजस्थान के संदर्भ में देखा जाए तो अशोक गहलोत ने मुख्यमंत्री बनते ही कहा था कि वे पूर्ववर्ती राजे सरकार की अच्छी योजनाओं को बंद नहीं करेंगे। इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्यमंत्रियों से सरकारी बंगला खाली कराने के आदेश के बावजूद गहलोत सरकार नई पॉलिसी लेकर आई और वसुंधरा राजे पर खूब मेहरबानी दिखाते हुए बंगला खाली नहीं कराया गया। चुनावी आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह होते हैं लेकिन दिग्गज विरोधी नेताओं के बीच भी आपसी तालमेल होता है, गोया कि हाथी के खाने के दांत अलग होते हैं और दिखाने के दांत अलग। आपको याद होगा कि वसुंधरा राजे से नाराज चल रहे भाजपा के दिग्गज नेता घनश्याम तिवाड़ी बार बार अशोक गहलोत से मिलने पहुंच जाया करते थे। गहलोत भी गाहे-बगाहे उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया करते थे। आखिरकार अपनों से ही आहत तिवाड़ी ने तीसरा मोर्चा खड़ा करने और अपनी अलग पार्टी बनाने के असफल प्रयासों के बाद कांग्रेस का दामन थाम लिया।
हनुमान बेनीवाल के एक आरोप में थोड़ा बहुत दम नजर आया, यह भी मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री की कथित सांठ-गांठ को उजागर करता हुआ ट्वीट था। बेनीवाल ने लिखा कि – राजे सरकार केआखिरी महीनों में राजे के भरोसेमंद अफसर जो एसओजी के मुखिया थे उन्हें गहलोत ने खुद के वर्तमान अफसरों को हटाकर फिर से एसओजी की कमान दे दी यह अपने आप में गठजोड़ की कहानी कहता है। उन्होंने यह भी लिखा कि एसओजी ने फोन टेपिंग में गहलोत और राजे के बीच कई बार फोन पर बात होना भी पाया।
बेनीवाल की इस बात को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। प्रशासनिक नियुक्तियों में इस तरह एक दूसरे का ध्यान रखा जाता है, जबकि राजस्थान में हर पांच साल में सरकार बदलती रहती है, ऐसे में मुख्यमंत्री स्तर पर पक्ष और विपक्ष का एक दूसरे का खयाल रखना सियासी तौर पर जायज माना जा सकता है। इस मामले की पेचीदगियां कुछ ऐसी हैं कि बिना जांच के कुछ भी कहना मुश्किल सा है। बेनीवाल ने तो यहां तक कह दिया कि प्रदेश में आईएएस और आईपीएस के तबादलों में वसुंधरा राजे के चहेतों को बड़े पदों पर बिठाया गया है, इस पर यकीनी तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि प्रदेश में निकाय चुनाव होने की संभावना है, ऐसे में हर राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए राजनीतिक नियुक्तियां और प्रशासनिक फेरबदल करता ही है।
सचिन की नाराजगी के मायने क्या ?
बेनीवाल ने कहा कि इस मनगढन्त षडयंत्र के सूत्रधार अशोक गहलोत हैं। उनके इस आरोप को इस नजरिये से देखा जा सकता है कि जब से राजस्थान में विधानसभा चुनाव के वक्त से ही सचिन पायलट के समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर देखने लगे थे और उम्मीद जताई जा रही थी राजस्थान में युवा सचिन को मौका मिल सकता है। लेकिन आलाकमान ने सचिन और उनके समर्थकों की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए एक बार फिर अनुभवी गहलोत को प्रदेश की कमान सौंप दी। शक्ति संतुलन स्थापित करने के लिए सचिन पायलट को कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और उप मुख्यमंत्री का पद सृजित किया गया। इसके बाद भी प्रदेश में गाहे बगाहे पायलट गुट और गहलोत गुट में तकरार की बातें उठतीं रहीं और दोनों ही नेता ऊपरी मन से गुटबाजी को नकारते भी रहे। प्रदेश में सरकार आगे बढ़ रही थी कि इसी दौरान मध्यप्रदेश में तेजी से सियासी घटनाक्रम बदला। नाराज चल रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने वहां कमलनाथ सरकार को तगड़ा झटका दिया और सरकार पलट गई। इस घटना के बाद राजस्थान में अशोक गहलोत का बीपी बढ़ना ही था। उन्हें डर सताने लगा कि राजस्थान में इस तरह की घटना घट सकती है। उनका डर कई बार सार्वजनिक तौर पर उभर कर सामने भी आया।
अशोक गहलोत को डर क्यों लगता है ?
कई बार उन्होंने यह अंदेशा जताया कि उनके विधायकों को खरीदा जा सकता है, उनके प्रदेश में सरकार को अस्थिर किया जा सकता है। उनकी इस तरह की बयानबाजी का सचिन पायलट पर गहरा असर पड़ा होगा। आखिर क्यों गहलोत को अपने ही विधायक बकरामंडी के बकरे नजर आने लगे। क्यों वे परोक्ष रूप से अपनों को ही ‘गद्दार’ की संज्ञा दे जाते हैं। क्यों वे यह कह बैठते हैं कि मुख्यमंत्री कौन नहीं बनना चाहता। क्यों पुलिस के माध्यम से एक बातचीत को आधार बनाकार उपमुख्यमंत्री का नाम उसमें घसीटा जाता है और बयान देने के लिए नोटिस जारी किया जाता है। मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी बचानी है और इसके लिए वे जितने भी दांव खेल सकते हैं, वे खेल रहे हैं। अशोक गहलोत यह भी जानते हैं केंद्र में बैठे प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की ताकत क्या है, वे यह भी जानते हैं कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी किसी भी राज्य में कुछ नहीं कर पाए, भाजपा का शीर्ष चालें चलता रहा, प्रदेशों में सरकारें गिरती रहीं, ज्योतिरादित्य जो राहुल गांधी के सबसे करीबी थे, उन्हें तक कांग्रेस रोक नहीं पाई तो वे कांग्रेस आलाकमान से ज्यादा उम्मीदें भी नहीं करते। लिहाजा अशोक गहलोत अपने बलबूते पर अपनी सरकार बचाना चाहते हैं और उसके लिए जो कुछ उन्हें ठीक लग रहा है, वे वही कर रहे हैं।
अब बात आती है वसुंधरा राजे की। हालांकि हनुमान बेनीवाल की वसुंधरा राजे से तनातनी साफ जाहिर है। लेकिन उन्होंने राजस्थान में सियासी संकट का सूत्रधार वसुंधरा राजे को माना है। उनके आरोपों को अगर एक तरफ रख भी दिया जाए, तो सवाल यही कि वसुंधरा राजे जो कि प्रदेश भाजपा के नक्शे से फिलहाल कई दिनों से गायब हैं, वे क्यों ऐसी चाल चलेंगी जिसमें उनकी ही पार्टी के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष गुलाब चंद कटारिया और राजेंद्र राठौड़ फसें। देखा जाए तो इसके पीछे भी आपको सियासी महत्वकांक्षाओं की सुगबुगाहट ही नजर आएगी।
सियासी ड्रामा, वसुंधरा बनाम मोदी
अब अगर आप थोड़ा सियासी फ्लैश बैक में चलेंगे तो आपको अंदाजा होगा कि क्यों वसुंधरा राजे प्रदेश में राजनीतिक परिदृश्य से गायब नजर आ रही हैं और उनका राजनीतिक भविष्य क्या होने वाला है। दरअसल, अपने कार्यकाल (2013 से 2018) तक वसुंधरा राजे की प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के साथ तनातनी जगजाहिर रही। प्रदेश के वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी भी सार्वजनिक तौर पर कई बार वसुंधरा राजे को घेरते रहे और दिल्ली जाकर शिकायतें करते रहे। रह रहकर वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद से हटाने जाने की हवाएं भी जोर पकडने लगीं थीं। वसुंधरा राजे ने खुद माना था कि प्रदेश में उन्हें संगठन का पूरा सहयोग नहीं मिला जिसके चलते उन्हें विधानसभा चुनाव में हार मिली। इसके बाद तो आलाकमान ने चुनावी हार के बाद उन्हें कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सतीश पूनिया को प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाया जाना ही इस बात का इशारा था कि केंद्रीय आलाकमान वसुंधरा राजे को कमजोर करना चाहता है। सतीश पूनिया का झुकाव अमित शाह की ओर था। यह बातें हुईं कि विधानसभा चुनाव में हार के बाद केंद्रीय आलाकमान ने प्रदेश संगठन में वसुंधरा राजे की कोई बात नहीं चलने दी। हालांकि वसुंधरा राजे को इस बीच भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया लेकिन इसे भी राजे को राजस्थान से दूर करने की रणनीति के तौर पर देखा गया। पत्रकार जगत में उस समय चर्चा थी कि वसुंधरा नेता प्रतिपक्ष रोल निभाना चाहती हैं लेकिन ये जिम्मेदारी गुलाबचंद कटारिया को दी गई। आपको याद होगा 2012 में चुनाव से ठीक पहले राजे और कटारिया की तनातनी के बीच वसुंधरा को अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ी थी। वसुंधरा की नाराजगी के बावजूद केंद्रीय आलाकमान के इशारे पर वसुंधरा के धुर विरोधी हनुमान बेनीवाल के साथ पार्टी ने गठबंधन कर लिया। केंद्रीय कैबिनेट में भी गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी, अर्जुनराम मेघवाल को शामिल किया, जिनकी पहचान वसुंधरा विरोधियों के तौर पर थी। ओम बिडला को भी लोकसभा अध्यक्ष बनाया गया जिनकी वसुंधरा राजे के साथ तल्खी कभी नहीं छुपी।
क्या वसुंधरा राजे कर पायेंगी वापसी ?
मोटी बात यह है कि वसुंधरा राजे को जब जब सियासी तौर पर बेदखल करने की कोशिश की गई, तब तब उन्होंने अपनी ताकत दिखाई है। यह ताकत केंद्रीय आलाकमान की ओर से कोई पद दिए जाने के कारण उन्होंने नहीं कमाई। सतीश पूनिया पार्टी के कार्यकर्ता के तौर पर तो चमक सकते हैं, लेकिन उनका इतना प्रभाव नहीं है कि वे जनता के नेता के तौर पर पूरे प्रदेश को मान्य हों। वसुंधरा राजे की यही ताकत उन्हें खास बनाती है, तमाम अंदरूनी विरोधों और कलहों के बावजूद राजस्थान की जनता वसुंधरा राजे की ताकत को पहचानती है और स्वीकार करती है। भाजपा के तमाम बड़े नेताओं में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो वसुंधरा की काट साबित हो सके। हां, एक नेता है जिसे केंद्रीय आलाकमान ने तुरूप के पत्ते की तरह संभाल कर रखा हुआ है। वह नेता है कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौड.। आप सोच रहे होंगे कि इतने प्रभावी नेता को मोदी सरकार ने गुमनाम क्यों किया हुआ है। कोई मंत्रालय भी नहीं दिया जबकि उनका काम संतोषजनक था। इसका सीधा सा जवाब यही हो सकता है कि मोदी और शाह ने राज्यवर्धन को वसुंधरा के विकल्प के तौर पर संभाल रखा है, जरूरत पड़ी तब ये पत्ता सियासी बिसात पर फेंका जरूर जाएगा।
सचिन के सितारे कितने बुलंद ?
फिलहाल, सचिन पायलट ने अपना दमखम दिखाना शुरू कर दिया है। टेप में रिकॉर्ड हुई बातचीत में कहा गया था कि 30 जून के बाद सचिन के सितारे बदलेंगे। क्या दिल्ली एनसीआर में 24 विधायकों के साथ पाया जाना उनके सितारे बदलने की कहनी कह रहा है। पायलट की प्रेशर पॉलिटिक्स का असर क्या होगा, यह दबाव सिर्फ इसलिए है कि निकाय चुनाव तक उन्हें पीसीसी चीफ के पद पर कायम रखा जा सके। ज्योतिरादित्य नामक हादसे के बाद केंद्रीय आलाकमान भी नहीं चाहेगा कि राजस्थान में वही मध्यप्रदेश वाली स्टोरी दोहराई जाए। एसओजी प्रकरण के बाद से खफा चल रहे सचिन पायलट अब प्रदेश की राजनीतिक का रुख किस दिशा में मोडेंगे, यह वक्त बताएगा।
रिपोर्ट आशीष मिश्रा