कोरोनाकाल : सरकारी स्कूल के एकलव्य कितने ‘डिजिटल’?

फोकस भारत। कोरोनाकाल ने दुनिया की अध्ययन अध्यापन शैली को डिजिटल तकनीक के अधीन कर दिया है। पश्चिमी और तकनीकि समृद्ध देश लम्बे समय से डिजिटल शिक्षा को अपनाते आए हैं लेकिन भारत जैसे विकासशील और तकनीकि माध्यमों के प्रयोग के तौर पर पिछड़े देश क्या डिजिटल शिक्षा के अपने स्तर को वैश्विक स्तर तक उठा पाएंगे, इसमें अभी संदेह है। हालांकि बड़े शहरों और महानगरों के निजी विद्यालयों के छात्रों के लिए डिजिटल शिक्षा जाना- पहचाना जरिया हो सकता है। लेकिन सवाल देश के गांव देहात में पसरे उन सरकारी विद्यालयों का है जहां थंब इंप्रेशन मशीन तक का हव्वा खड़ा हो जाता है। ऐसे गावों की तादाद भी कम नहीं जहां इंटरनेट ने अपने डैने नहीं फैलाए हैं। बिजली तो आज भी कई अंचलों की समस्या है।

भारत में 14 मार्च के बाद कोरोना के प्रभाव के चलते क्रमवार तरीके से सरकारी स्कूलों को बंद किया गया गया। लॉकडाउन के तमाम फेज़ के बाद ये स्कूलों को  बंद ही रखने का निर्णय लिया गया। लेकिन अनलॉक में विभिन्न एप के माध्यम से सरकारी स्कूलों के छात्रों को डिजिटल शिक्षा मुहैया कराने की कवायद शुरू की गई। राजस्थान में जयपुर दूरदर्शन इकाई से भी छात्रों के लिए विषयों के कार्यक्रमों का प्रसारण किया जा रहा है। सवाल यह भी है भारत में  इस नई शिक्षा तकनीक से वंचित छात्रों के लिए डिजिटल प्लेटफार्म मुहैया कराने के लिए सरकारी प्रयास किस स्तर के हैं। क्या बच्चों के लिए सरकार की तरफ से एंड्रोयड फोन, इंटरनेट और उसमें  प्रतिदिन लगभग दो जीबी डेटा और नेटवर्क की व्यवस्था को दुरुस्त करने का कोई कदम उठाने वाली है ?

हालांकि यह सच है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है, लेकिन भारत में आकर यह प्यास लगने पर कुआं खोदने वाली कहावत हो जाती है। डिजिटल क्रांति अभी हमारे लिए दूर की कौड़ी साबित हो रही है। आप एक शहर में सभी तरह की सुविधाओं को भोगते हुए यह अंदाजा नहीं लगा सकते कि जैसलमेर, बाड़मेर, नागौर, बीकानेर जैसे रेगिस्तानी जिलों के सुदूर ग्रामीण अंचलों में जहां पानी पहुंचना भी एक ख्वाब है वहां इंटरनेटिया धारा पहुंचना कितना दुष्कर है। आप यह भी अंदाजा नहीं लगा सकते कि भीलवाड़ा और बांसवाड़ा की आदिवासी बैल्ट में किताबी ज्ञान से महरूम बच्चों के लिए मोबाइल और उससे शिक्षा की प्राप्ति किसी अनजाने सपने से कम नहीं। पूर्वी राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में भी डिजिटल शिक्षा की पहुंच को अभी उस नजर से नहीं देखा जा सकता, जिससे हम ये कह सकें कि हम संचार प्रोद्यौगिकी के मामले में दुनिया के साथ कदम मिला पा  रहे हैं।

कहने सुनने में अच्छा लगता है कि जयपुर, भुवनेश्वर, कटक, राउरकेला, पुरी, बारीपदा और संबलपुर जैसे शहरों में सरकारी स्कूल के लगभग 50 फीसदी छात्र व्हाट्सएप, मधु एप, दीक्षा पोर्टल आदि के जरिये डिजिटल शिक्षा तंत्र से जुड़ गए हैं। बिहार, झारखंड और उड़ीसा जैसे राज्यों के पिछड़े इलाकों की बात तो छोड़ दीजिए। वहां सरकारी राशन ही जरूरतमंद लोगों तक पहुंच जाए तो बड़ी बात मानी जाती है। राजस्थान में शिक्षा मंत्री गोविंद डोटासरा के उस आदेश पर भी ध्यान देने की जरूरत है जिसमें उन्होंने कहा है कि जब तक स्कूल नहीं खुलेंगे तब तक अभिभावकों से फीस नहीं वसूली जा सकती। अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले लाखों अभिभावकों ने इस आदेश पर पर सुकून की सांस ली होगी। देखना यह भी है कि जिस उत्साह से बड़े निजी स्कूल ऑनलाइन कक्षाएं मुहैया कराकर फीस वसूलने का मंसूबा पाले हुए थे, क्या उनके उत्साह में कुछ कमी आएगी।

फिलहाल, भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ सगर्व यह तथ्य रखा था कि ग्रामीण इलाकों में शहरों की तुलना में अधिक आबादी इंटरनेट का उपयोग कर रही है। शहरों में यह आंकडा 20 करोड 50 लाख है तो गावों में यह तादाद 22 करोड 70 लाख पहुंच गई है। दावा यह भी कि जनवरी 2020 में भारत के स्मार्टफोन बाजार ने अमेरिका पर बढ़त बना ली है और अब वह चीन के बाद सबसे विशाल स्मार्टफोन बाजार है। यह ठीक है और इस पर विश्वास किया जा सकता है कि भारत में 50 करोड़ से ज्यादा लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन इसके साथ यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी भी लगभग 80 करोड़ लोगों की पहुंच स्मार्टफोन, इंटरनेट और आभासी दुनिया तक नहीं है।

गुरू द्रोण द्वारा ठुकराए छात्र एकलव्य ने दूर से ही शिक्षा प्राप्त करने का मानस बनाया, यह उसका आत्मबल था। लेकिन भारत के सरकारी स्कूल के बच्चों के सामने डिजिटल चुनौतियां कुछ अलग तरह की हैं, जिन्हें हवा हवाई आंकड़ों से नहीं समझा जा सकता।

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