लॉकडाउन में टूटी ये 200 साल पुरानी परंपरा

फोकस भारत। कोरोना वायरस महामारी की वजह से इस बार पाक रमजान माह में रायसेन के ऐतिहासिक किले से रोजा खोलने और सहरी के लिए तोप चलाने की वर्षों पुरानी परंपरा इस बार नहीं होगी। 200 साल में पहली बार ऐसा होगा जब किले की तोप मौन रहेगी। ये तोप रमजान में सहरी और इफ्तार की जानकारी देने के लिए मध्यप्रदेश के रायसेन के किले से चलती है। इस साल लॉकडाउन की वजह से जिला प्रशासन ने तोप चलाने की अनुमति नहीं दी है। दरअसल यह तोप एक परिवार के सदस्य तीन पीढ़ियों से चला रहे हैं। वर्तमान में यह तोप शखावत उल्लाह 10 साल से चला रहे हैं। इसके पहले उसके दादा काजी बरकत उल्ला और बाद में उसके पिता शिखावत उल्लाह ने वर्षों तक तोप चलाई।

तोप चलाने का लाइसेंस
मसलन आधिकारिक जानकारी के अनुसार इस तोप का पहला लाइसेन्स सबसे पहले वर्ष 1956 में तत्कालीन कलेक्टर बदरे आलम ने जारी किया था। रमजान माह के बाद इस तोप को विधिवत कलेक्ट्रेट के मालखाने में जमा करा दी जाती है। रमजान माह में अलसुबह होने वाली सहरी की सूचना नगाड़ा बजाकर देने की भी अनूठी परंपरा रही है। पांच सौ फीट ऊंची किले की पहाड़ी से यह तोप रात के सन्नाटों को चीरती नगाड़ों की आवाजों से आसपास के लगभग पचास गांव के रोजेदारों को इस वर्ष नही जगाएगी। रायसेन में रमज़ान के दौरान चलने वाली तोप के लिए बक़ायदा लाइसेंस जारी किया जाता है। कलेक्टर तोप और बारूद का लाइसेंस एक माह के लिए जारी करते हैं। इसे चलाने का एक माह का ख़र्च क़रीब 40,000 रुपए आता है। इसमें से तक़रीबन 5000 हज़ार रुपए नगर निगम देता है। बाक़ी लोगों से चंदा कर इकट्ठा किया जाता है। तोप को रोज़ एक माह तक चलाने की ज़िम्मेदारी सख़ावत उल्लाह की है। वे रोज़ा इफ़्तार और सेहरी ख़त्म होने से आधा घंटे पहले उस पहाड़ में पहुंच जाते हैं, जहां तोप रखी है और उसमें बारूद भरने का काम करते हैं।

तोप से ईद पर चांद दिखने का संकेत
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि ईद का चाँद दिखने का जितना इंतजार देश के रोजेदारों को होता है, उतना ही इंतजार ईद का चाँद दिखने के साथ ही उस दिन विशेष रूप से लगभग दस बार तोप चलाकर चांद दिखने का संकेत भी दिया जाता रहा है।

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